गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

मिट्टी से मेरा नाता है

 मिट्टी से मेरा नाता है,

धरती माँ से रिश्ता पुराना,

बीज में जीवन बोता हूँ,

हर मौसम से करता बहाना।


मैं कोई बड़ा डॉक्टर नहीं,

पर खेत मेरा अस्पताल है,

जहाँ रोग नहीं इंसानों के,

फसल का हर हाल-बेहाल है।


मैं "कृषि चिकित्सक" कहलाता,

किसानों का हूँ साथी सच्चा,

दवा नहीं यहाँ प्रेम बाँटता,

हर पौधे से रखता नाता अच्छा।


बूढ़े बाबा की आँखों में मेहनत,

युवा किसान की आँखों में जोश,

दोनों में देखूँ भारत का चेहरा,

जिसमें बसता हर रोज़ विश्वास।


धरती का सीना चीर के बोता,

और फिर अन्न का पर्व मनाता,

ऐ मेरे किसान भाई सुन लो,

तुम ही देश का भगवान कहलाता।


जब खेत हँसे तो मन मुस्काए,

जब फसल लहराए तो गीत गाऊँ,

हर गाँव में खुशहाली फैले,

यही सपना मैं हर दिन बो जाऊँ।

                          अमित कुमार वंशी                                     




सोमवार, 20 अक्टूबर 2025

पहली दफा घर से दूर दीवाली

आज हर घर-घर दीवाली है…

पर इस बार मुझे अधूरी सी लगती है,

रोशनी तो है चारों ओर हमारे आस पास,

पर मन में एक हल्की सी अंधियारी लगती है।


पहली बार हूं आज मै घर से दूर,

ना दादी की आवाज़, ना दादा का वो शोर,

ना आंगन में रंगोली बनाने की कोई बेचैनी,

ना दीयों की लौ से घर आंगन सजाने का होर।


याद आते हैं वो बीते सारे पल सुनहरे,

जब सब मिलकर सजाते थे घर आंगन के घेरें,

मां के हाथों के वो अनेकों पकवान की खुशबू,

और भाई-बहनों की हँसी में बसी खुशी के फेरे।


दोस्तों संग पटाखों की रौनक और भाग दौर,

पर आज बस यादें हैं, और मन में अजीब शोर 

फिर भी मन कहता है खुद से खुद के लिए

दीवाली तो दिल में जलने वाली रौशनी है,

जहां परिवार की दुआ रहे और बढ़े प्रगति की ओर 


दूर रहकर भी आज यही कामना है उससे हमारी 

हर घर, हर दिल यूं ही रोशनी से जगमगाता रहे,

और मेरा प्यार, मेरी याद वहां तक पहुंच जाए 

जो हमें महसूस कर दूर से बधाई दे  इस दिवाली ।



                               अमित कुमार वंशी                    


गुरुवार, 25 सितंबर 2025

मेहनत का फल क्यों नहीं?

किताबों के संग बिताए है ,

ज़िन्दगी के कितने साल,

हर लफ़्ज़ को पूजा समझा,

हर पन्ना था मेरे लिए कमाल।


सुबह से शाम तक पड़ता रहा ,

सपनों को रंगीन बनाता रहा,

उम्मीद थी एक उजली सुबह की,

पर हर मोड़ पर अंधेरा ही पाता रहा।


डिग्रियां तो दीवार पे सजी हैं,

पर जेबें आज भी खाली हैं,

सपने तो हैं मगर टूट चुके,

उम्मीदें भी अब सवालों में पली हैं।


जो मेहनत हमने किया निरन्तर,

उसका फल अबतक क्यों नहीं आया?

क्यों हालात ने मेरा मज़ाक उड़ाया,

क्यों किस्मत ने ऐसा दिन दिखाया?


आज वही साथी, जो कभी पढ़ाई छोड़ गए,

रोज़गार के रास्तों में आगे निकल गए।

मैं अबतक किताबों में डूबा रहा,

वो जीवन में खुशियां चुन गए।


पर फिर भी मेरा ये दिल कहता है,

हारना नहीं, निरंतर चलते रहना है,

सपनों की राहें है कठिन सही,

मगर उम्मीद को जलते रहना है।


क्योंकि मंज़िल देर से ही सही,

मगर मेहनत का एक दिन सम्मान होगा,

मेरी तपस्या का हर एक आंसु 

एक दिन इंसाफ़ का जरूर प्रमाण होगा।

                             अमित कुमार वंशी                         

रविवार, 14 सितंबर 2025

हिंदी दिवस


आज हिंदी दिवस है,

हर कोई शान से लिखता है,

कविता, शायरी और गजल,

भाषा का मान बढ़ता है प्रवल।


जब बीत जाता आज का पल 

कल करे कोई फिर यही पहल 

तो कुछ चेहरे अनसुने करते हैं,

कान खुद-ब-खुद बहरे हो जाते हैं।


सिर्फ किताबों के पन्नों पर ही 

ये शब्दों का मान रह जाता है,

मंच पर उभरने का सपना

अक्सर बेमान ही रह जाता है।


हम रचनाकार भी तो इंसान है,

सिर्फ सम्मान की आस लगाए बैठे है,

हमारी कविता में खुदकी एहसास हैं,

शब्दों में हमारी आत्मा की  धुन है।


हां है सम्मान यहां भी कुछ के नाम 

चाहे करे बड़ा या छोटा रचनात्मक काम 

जो अक्सर दूसरों को मौका नहीं देते,

उभरते स्वर दबाकर अपनी झंडा गाड़ते।


क्यों वो भूल जाते है अक्सर कि

एक दिन हर पेड़ कभी बीज ही था,

यहां जन्मे हर रचनाकार कभी

संकोच से भरा नवसीखिया ही था।


आओ, मंच बाँटें, सबको मौका दें,

हर एक एक कलम को खुलने दें,

हिंदी तभी पूरी जग में महान बनेगी

जब हर किसी को यहां सम्मान मिलेगी।

                               अमित कुमार वंशी           



गुरुवार, 14 अगस्त 2025

लीची अनुसंधान कैम्पस

यहां सिर्फ हरि भरी पेड़ नहीं,

हर शाखा पर टंगे बरे-बारे सपने है ।

यहां मेहनत और प्रकृति मिलकर,

अक्सर कई नई-नई कहानी गढ़ते है ।

फल फूलों की मिठास हवा में  

इस संस्थान की यही खुबसूरती है ।


चार दिवारी से निकलते ही जब 

सूरज की पहली किरण दिखती है

साथ मे पंछियों की चहचहाहट भी 

जब हर सुबह का स्वागत करती है ,

मानो प्राकृतिक अपने स्वर में गाती है ।

यहां की यहीं सब पल दिल को भाती है।


संघर्ष और धैर्य यहां वैज्ञानिक से सिखा

असफल होकर पुनः प्रयास करते देखा ।

मधुर स्वर में बाते करते और कुछ समझाते 

लीची के मिठास सा खुद के प्रति लुभाते देखा।


ज्ञान विज्ञान के जुड़कर यहां बहुत कुछ सिखा

कभी लीची फल चखा तो कभी लीची रस चखा।

यहां हर एक-एक फल में मीठा विज्ञान लिपटा है  

मिट्टी से मिठास तक संस्थान एक कहानी गढ़ता है।

     

                                        अमित कुमार वंशी 

NRC लीची अनुसंधान


शनिवार, 26 जुलाई 2025

बेरोजगार

मत करो तुम अत्याचार 

हम है अभी बेरोजगार 

खुद को कर रहे है तैयार 

लेकिन अभी है हम बेरोजगार

सहकर ताने हो रहे होशियार।।


तपकर हम इस भवनडर में अभी 

बढ़ा रहे अपनी शक्ति और संस्कार 

बढ़ रहे कल्याण की दिशा में निरंतर 

कर रही स्थिरता जीवन मे अभी प्रहार 



मंगलवार, 22 जुलाई 2025

कुछ रिश्ते अक्सर भुलाए नहीं जाते

कुछ रिश्ते अक्सर भुलाए नहीं जाते
पाकर या खोकर कभी बताए नहीं जाते 
संभाल कर रख अपने अंदर आजीवन 
किसी मोर पर मिलना तो कभी बिछड़ना 
अक्सर ये दर्द खुद के अंदर ही दबाएं जाते ।

कुछ किस्से बताए नहीं जाते किसी से भी 
तो कुछ कितना भी छुपाए छुप नहीं पाते 
याद कर उस पल को अक्सर मन घबराते 
कुछ रिश्ते अक्सर कभी भुलाए नहीं जाते।।

दूर होकर भी कुछ एहसास छोड़ जाते 
चाहे हालात और समय बदल जाते पर 
ये मन, और बीते बंधन संग रह जाते ।
थके पथिक सा छांव का एहसास दिलाते।
कुछ रिश्ते अक्सर भुलाए नहीं जाते ।।

गहराइयों में जाकर कुरेदता कभी कुछ छन 
तन्हाइयों में अक्सर ढूंढ़ता है उसे ये मन 
फिर थक हार कर पछताता है, पर क्या करे ?
आज भी उसे मुझसे नहीं  भूलाया जाता है ।।

कमी मुझमें थी या था कुछ पल का खिलौना 
कहती बचपना थी हमारी, अब संग न रहना ।
मुलाकात में बहकी साड़ी अंदाज उसकी थी।
मन से तन तक पूरी शुरुआत भी उसकी थी ।।

ये अनमोल रिश्ता मानकर अपनाया था हमने 
पर क्या पता था ये बस खेल बचपना की थी।।
कुछ पल संग खेलेगी फिर बहुत दूर धकेलेगी
हम बंध जाएंगे पूरी जीवन गंभीत रिश्तों में 
वो खिलौने बदलेगी उम्र के साथ जीवन मे ।।

किस्से बतलाए अपनी ये गलतियां जीवन की 
क्यों मजाक बनाए हम खुद ही खुद की 
बाते तो छुप जाती पर दुखी मन दिख जाता है ।
पाकर या खोकर कुछ रिश्ते बताए नहीं जाते।
कुछ रिश्ते अक्सर कभी भी भुलाए नहीं जाते।।

                                अमित कुमार वंशी 

गुरुवार, 17 जुलाई 2025

तुझे पाना चाहा

हमने अक्सर तुमसे बेहतर नहीं 

सिर्फ तुम्हे ही अपनाना चाहा।

हर मोर पर साथ तेरे बिताना चाहा 

हंसकर, रोकर, गाकर, सिर्फ सामने तेरे 

वो साड़ी पल को साथ निभाना चाहा ।


देखकर तेरी मुस्कान अक्सर झूमना 

प्रवाह नहीं मुझे दुनियां के तामासे की 

मुझे सिर्फ तुम हक दो तो तुझे चूमना 

खुश हूँ तुम तक बस मुझे और नहीं ढूंढना ।


बस डर है मुझे तेरे बदनामी का नही तो मै 

अपनी दिल में दबाए वो बात खुल्याम कर दूं ,

दो आजादी तो प्यार का ऐलान सरेआम कर दूं ,

आजीवन तेरे होकर मै अपना जीवन बीता दूं ।


तुम जैसे हो वैसे ही हरदम रहना, चाहो तो संवरना 

प्रेम सिर्फ तुझसे है और न मुझे तुझसे कुछ कहना।

पवित्र रिश्तों में बंधक संग हंसना, गाना और झूमना 

तुम बेहतर हो, बस मुझे तेरे संग आजीवन रहना।।


                                              अमित कुमार वंशी 




गुरुवार, 26 जून 2025

रो मत,जाने दे

   अब रो मत जाने दे     

रो मत , जी लिया मै जिंदगी अपनी ।

मत रोक मुझे , जाना है अब जाने दे ।।

पा लिया है सब कुछ,अब बचा क्या है?

भर गया है अब जी मेरा ,अब जाने दे ।।


अब क्यों रहे बोझ बनकर इस जग में ?

रोना वहां जहां जन्म लेते ही मर जाता है,

जो जिंदगी का मजा भी नहीं ले पाता है ।।

तुम रो मत जी लिया मै जिंदगी अपनी ,

मत रोक मुझे जाना है अब जाने दे ।।


चाहता नहीं बोझ बनकर जीना यहां ,

अपने कारण कष्ट किसी दूसरे को देना ।

नहीं भा रहा मुझे भी परे-परे सोना ।।

तुम रो मत जी लिया मै जिंदगी अपनी 

मत रोक मुझे जाना है अब जाने दे ।।


अब भा रहा मुझे जग छोड़ के जाना ,

माना किया है बहुत तुम शेवा मेरा –

 पर कहा भी है कि बहुत ये पेर रहा 

बोझ बनकर मेरा भी समय ये ले रहा 

हा तुमने कहा है,फिर क्यों तुम सब रो रहा 

अब रो मत जी लिया मै जिंदगी अपनी 

मत रोक मुझे जाना है अब जाने दे ।।


रहता मौत हाथ मेरे तो न देता कष्ट तुझे 

रहता नहीं यहां मै दिन–रात परे परे ,

चला जाता कब ही इस जग को छोड़ के ।

अब क्यों रोते हो इस हालत में देख के ।।

तुम रो मत जी लिया मै जिंदगी अपनी 

मत रोक मुझे जाना है अब जाने दे।।

                          अमित कुमार वंशी                        

     

गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

छोड़ मुझे बेहतर पाना

छोड़ मुझे खुश रहना,पर मुझसे बेहतर पाना 

जो सह सके तेरे नखरे,जो रह सके आजीवन तेरे 

अपने दुःख को भूल कर , पहले दुःख तेरे निवारे 

उफ की आवाज सुन वो, पास तेरे दौरे आवे 

हमसे हुए कमी भी वो पूरी कर,तेरे मन को भावे 


बुलंदियों को चुमती हुई, बढ़ रही हो लगातार 

बढ़ते जाओ, कुछ बेहतर पाओ, मान बढ़ाओ 

इस पल में वह खुद की वाह वाही न लूट कर 

जो दे तेरे सभी असफलता मे,अपना पूरा साथ 

भर कर बाहों में वो तुझे , दिलाए पूरा विश्वाश

तुम फिर लेकर आस,करो मुसीबत से विजई प्राप्त 


मै देखूं अंजान राही बन,जब हाथ पकड़ तुझे घुमाए 

पगडंडी पर तुझे चलाए और खुद झाड़ी से टकराए 

वह छन देख मेरा मन तुझे नही पारकर भी इतराएगा 

खुद को समझा कर, छोड़ बीते पल को मेरा भी मन 

अब एक नया जीवन मे तुझे देख भूलना चाहेगा ।।


कभी हो संयोग से आमने सामने तो खुद को छुपाऊ 

बनकर आईना मै देखूं अक्सर, पर मै न नजर आऊ 

मन दुःखी है, क्रोधित है खोकर पर मै कैसे बतलाऊं 

पर तुम खुश है संग उसके , यह देख मै इतराऊं ।।


                                       अमित कुमार वंशी 

सोमवार, 3 मार्च 2025

हमारी क्या कसूर थी पापा

आज मैं करुणा मन से पूछती हूं आपसे 

सिर्फ बंश बढ़ाने के लिए पैदा हुई थी क्या मै 

क्या कसूर थी जो इस दलदल में फंसा गए ।

पापा एक बात आपसे बतलाती हु।

फिर एक बार मै दोहराती हूं 

आप विजई हुए और मै हार गई।

समाज की मानसिक जंजीर के कारण 

फिर और एक बच्ची बेकसूर बंधा गई।


मेरा क्या सपना है उसकी बेपरवाह किए 

मेरे सारे अपने ही उसमें शामिल होकर ,

नाचकर – गाकर , किलकारियां मारकर 

मुझे खूब सजाकर और तालिया बजाकर 

एक अनजाने से पति का संबंध बतला गए ।

रातों रात मुझे अपनो से इतना दूर हटाकर 

उसके संग बैठा कर जीवन साथी बतला गए।


अब मै बतलाती हूं अपनी मन की बात 

क्या सोचे कभी कैसे बीती होगी हमारी वो रात

करुणा से थी लत–फत हमारी आंचल शायद ।

कौन था जो समझे,सब थे अपरिचित मेरे साथ 

थी लाडली आपकी तो क्यों दिया ऐसी यातना मुझे 

आपकी कठोरता देखकर झगझोड़ दिया मन मेरे  ।


मै बोझ थी आपके लिए शायद, तो निमाह लिए 

मेरी चाहत को बिन जाने , नही दिए मुकाम पाने।

हा आप विजई हुए और मै आपसे हार गई ,

समाज के बीच अपना कैसा मान सम्मान जताने 

सिर्फ बंश बढ़ाने के लिए पैदा हुई थी क्या मै 

क्या कसूर थी हमारी जो इस दलदल में फंसा गए।


क्या याद है जो मै विनती कर बोली थी आपसे 

अकेले होकर पुरी जीवन कर लूंगी निर्वाह अपनी 

तब भी समाज का हवाला देकर मुझे बहलाया 

मुझे दोषी ठहरा कर आपने खूब समझाया 

मेरे परिचित संग शादी का भी प्रस्ताव ठुकराया 

एक धर्म था–एक जात था, थी एक ही गोत्र 

पर भेड़ियो के बातों में आकर निकाला इसमें भी खोट ,

दिया ठुकरा आपने पर था वो इंसान बड़ा ही नेक ।


अनजाने संग कैसे रह पाऊं कैसे कोई बात समझाऊं 

मै ठुकराती हूं वो समाज को, जो कुरीति से बंधा है ।

हत्यारे जैसा व्यवहार करके भी वो तो खूब चंगा है।

लगभग बेटियां मुझ जैसे ही अपनो से ठगी जाती है,

भुगतती है बेटियां घुट घुट कर फिर उसी में ढल जाती है।

     अमित कुमार वंशी      



सोमवार, 7 अक्टूबर 2024

धोखेबाज नेताओ

धोखेबाज नेता 

ओ संसद में बैठे धोखेबाज नेताओं ,

एक बात तुम जरा मुझे बतलाओ ।

क्या खुद किए सारे वादे भुल गए ?

या अपनी लाज-शर्म धुलकर पी गए ।।

मुझे लगता खुद को तुम भारत देश का ,

मालिक समझ अहंकार मे है टूल गए ।।


ये भुल मत की जनता देश के मालिक है,

जिसने ताज पहना बैठाया तुझे गद्दी पर,

वही गिराया है कितनो को मुंह के बल ।।

क्यों पोत रहा कालिख अपने मुख पर ,

जिम्मेदारी को ठोकर मार, मनमानी जारी है।।


जो किया तेरा उद्धार कर रहा उसपे अत्याचार ,

कभी लाठियां वर्षा कर,कभी गोला फेंकवा कर 

क्या यही तेरी जिम्मेवारी है या तुम अत्याचारी है?

हम जनता की भी इसमें भी बड़ी भागेदारी है ,

कभी जाती भेद भाव का पाठ पढ़ाकर -

बड़ी-बड़ी लालच दिलाकर, बहलाकर फुसलाकर,

भोले जनता को मूर्ख बनाकर तुम सत्ता पाते हो।।


जिस दिन बिन बंटवारे, एक होकर आवाज उठाएं,

तुम्हारे किए सभी वादे गिनवाए और पूरे करवाएं ।

मुकरे वादे से, तो कालिख पोत चौराहे पर घुमाए,

फिर होश में आओगे, झूठे वादे करना भूल जाओगे ।।


एक बात जरा सत्ता में बैठे सभी नेता समझ जाओ, 

खुद के लापरवाही से, जब खुद पर सवाल पाते हो -

बीती बाते सुनाते हो, अब तक जो हुआ गिनाते हो ।।

फिर क्यो आज तुझे जनता सत्ता में लाकर बैठाया?

तेरे वादों को सुनकर विचार बनाया तब जिताया ,

जनता मूर्ख नहीं बस भोला है, गलती नहीं दोहराएगा।

वोट के समय किए वादे से, नहीं बहला फुसला पाएगा ।

अब भी सुधर जाओ नहीं तो मुंह के बल गिराएगा।।

       

                                        अमित कुमार वंशी 





शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

बूढ़ी माई की बोझ

  बूढ़ी माई की बोझ

चलले बानी एक सफर में ,

हम बहुत कुछ देख तानी ।

लेकिन ओहु मे एक खास बा,

हम मन ही मन ओके जोह तानी ।।


एक बूढ़ी माई बगले बैठल ,

आपन टोकरी खिसका ब तानी।।

बोझ रहे,भरल पूरा सामान से,

इतना उम्र मे काहे उठा ब तानी।।


रहल नही गईल पूछल बीन हमरो,

कहलस हमसे, नहीरा जाई तानी ।।

अभी त कम पर गईल सनेश हमरा,

लागता राउर आऊरो देवे के चाह तानी।।


सुन ई जवाब हमरा दिमाग बौराईल,

अंदर ही अंदर मन बहुत खीसीयाईल।

लेकिन ऊहो काहे कहिहन नही हमसे,

बाड़ी जीवन के पीड़ा से चिरचिड़ाईल।

ओहू में हम देहली आग लगाई ।।


फिर से कहली,ऐ माई मत खिसियाईं ,

तनिक ऐमे से दीही हमरो के चीखाई।।

कहनी एगो लमहर नोट थमाई ,

ई पुरा राऊर भईल ए बूढ़ी माई।।


तब आंचल से लोर पोछ कहनी हमसे,

जीवन में खानी हम आपन कमाई।।

एही बतीया जब संतान समझ पाई,

ई बोझ संघ मन के भी बोझ मीट जाई।।


बतियात - बतियात गईल स्टेशन आई ,

देहली माथ पर हम उनकर टोकरी धराई।।

सच मे ई बोझ उनका ला हलका रहे,

मन मे बाड़ी रखले बड़का बोझ छुपाई।।

                                      अमित कुमार वंशी 




मंगलवार, 6 अगस्त 2024

पूछती है दुनिया

         पूछती है दुनियां 

आंखें लाल देख पुछती है दुनिया,

क्या बे तुम पी रक्खा है ।।

जबाब दू तो क्या दू जनाब उनसे ,

काफी है कि मैं इस जहा में जी रक्खा है।।


मुर्दा शरीर नही पर मन अब जिंदा कहां है, 

आंसू भरी इन आंखों मे सपना कहा है ।।

आज भी टटोलती है आस पास उसे ,

पर वो कमबख्त यहां मौजुद कहा है ।। 


क्या नही थी मेरी,वो सब कुछ थी,

मेरे अंधेरी आत्मा की प्रकाश थी। 

वो मेरी चाहत थी , मेरी राहत थी ,

उसी से जीवन में मुस्कुराहट भी थी ।। 


मन कहता है आएगी एक दिन वापस, 

मेरे साथ निभाने,संग नई दुनियां बशाने ।।

इतनी वो कठोर नही है,ओ दुनियां वाले ,

देखना लाएगी एक दीन मेरे लिए चांद तारे।।


कभी यादों में,कभी बांहों मे उसे महसूस कर,

कभी मेरी आंखें बरस जाती है तो 

आंखें लाल देख पूछती है दुनिया ,

क्या बे तुम पी रक्खा है ।।

जबाब दू तो क्या दू जनाब उनसे ,

काफी है कि मैं इस जहा में जी रक्खा है।।

                            

                                       अमित कुमार वंशी 


आपकी कमी

      आपकी कमी 

आपके न होने की कमी है जैसे कि ,

अंधेरी रातों में बुझी मोमबत्ती की तरह।

रोशनी है जिसकी इतनी कि - 


चारों ओर उजाला ही उजाला कर दे।

पर मजबुर है वो भी इतना कि- 

पहले तो उसे चिंगारी सहारा कर दें ।।


है इंतजार मे उसके जो प्यारा है, 

बीन उनके ऐ जिन्दगी आवारा है। 

महत्व है इसे जबतक उसका सहारा है।।


बीन प्रकाश अंधेरे में कुचला जाएगा, 

चाह कर भी ऐ कुछ न कर पाएगा । 

सहेगा कितना , बेखबर हो जाएगा ।।


भाव है तेरे साथ होने से जाने जग सारा, 

तु न हो साथ तो जिंदगी है आवारा। 

जैसे मोमबत्ती को चीराग का है सहारा।।

     

                                अमित कुमार वंशी 

मिट्टी से मेरा नाता है

 मिट्टी से मेरा नाता है, धरती माँ से रिश्ता पुराना, बीज में जीवन बोता हूँ, हर मौसम से करता बहाना। मैं कोई बड़ा डॉक्टर नहीं, पर खेत मेरा अस्प...