सोमवार, 3 मार्च 2025

हमारी क्या कसूर थी पापा

आज मैं करुणा मन से पूछती हूं आपसे 

सिर्फ बंश बढ़ाने के लिए पैदा हुई थी क्या मै 

क्या कसूर थी जो इस दलदल में फंसा गए ।

पापा एक बात आपसे बतलाती हु।

फिर एक बार मै दोहराती हूं 

आप विजई हुए और मै हार गई।

समाज की मानसिक जंजीर के कारण 

फिर और एक बच्ची बेकसूर बंधा गई।


मेरा क्या सपना है उसकी बेपरवाह किए 

मेरे सारे अपने ही उसमें शामिल होकर ,

नाचकर – गाकर , किलकारियां मारकर 

मुझे खूब सजाकर और तालिया बजाकर 

एक अनजाने से पति का संबंध बतला गए ।

रातों रात मुझे अपनो से इतना दूर हटाकर 

उसके संग बैठा कर जीवन साथी बतला गए।


अब मै बतलाती हूं अपनी मन की बात 

क्या सोचे कभी कैसे बीती होगी हमारी वो रात

करुणा से थी लत–फत हमारी आंचल शायद ।

कौन था जो समझे,सब थे अपरिचित मेरे साथ 

थी लाडली आपकी तो क्यों दिया ऐसी यातना मुझे 

आपकी कठोरता देखकर झगझोड़ दिया मन मेरे  ।


मै बोझ थी आपके लिए शायद, तो निमाह लिए 

मेरी चाहत को बिन जाने , नही दिए मुकाम पाने।

हा आप विजई हुए और मै आपसे हार गई ,

समाज के बीच अपना कैसा मान सम्मान जताने 

सिर्फ बंश बढ़ाने के लिए पैदा हुई थी क्या मै 

क्या कसूर थी हमारी जो इस दलदल में फंसा गए।


क्या याद है जो मै विनती कर बोली थी आपसे 

अकेले होकर पुरी जीवन कर लूंगी निर्वाह अपनी 

तब भी समाज का हवाला देकर मुझे बहलाया 

मुझे दोषी ठहरा कर आपने खूब समझाया 

मेरे परिचित संग शादी का भी प्रस्ताव ठुकराया 

एक धर्म था–एक जात था, थी एक ही गोत्र 

पर भेड़ियो के बातों में आकर निकाला इसमें भी खोट ,

दिया ठुकरा आपने पर था वो इंसान बड़ा ही नेक ।


अनजाने संग कैसे रह पाऊं कैसे कोई बात समझाऊं 

मै ठुकराती हूं वो समाज को, जो कुरीति से बंधा है ।

हत्यारे जैसा व्यवहार करके भी वो तो खूब चंगा है।

लगभग बेटियां मुझ जैसे ही अपनो से ठगी जाती है,

भुगतती है बेटियां घुट घुट कर फिर उसी में ढल जाती है।

     अमित कुमार वंशी      



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें